Friday, October 9, 2009

लोग कहते हैं मुझे,


लोग कहते हैं मुझे,पत्थर सा दिल कर लो,सागर सा विशाल हृदय कर लो,चाँद-सूरज की तरह स्थिर हो जाओ,बुरा सपना समझ सब बातें भूल जाओ,देखो सब ठीक हो जाएगा….

कर लूँ मैं सब कुछ,जो तुम इन सवालों का जवाब दे दो,

पत्थर तब तलक ही द्रन रहता है,जब तलक़ हवा-पानी उसे हिलाने की ताक़त नहीं रखते,तेंज आँधियाँ जो सौ बार आएँ,पत्थर में भी अपने निशान छोड़ जाती हैं,और जो ना सह पाए वो,दरख्त की दरारें दे जाती हैं,और जो इससे भी ज़्यादा हद पर हो जाए,पत्थर को टुकड़े-टुकड़े कर,कंकड़ बना देती है…
तब कहाँ वो पत्थर कठोर रह पाता है?
सागर तब तलक ही विशाल रहता है,ग्रह-नक्षत्र, चाँद-तारे, उसके अनुकूल रहते हैं,जो दिशा-दशा बदले इनकी भी,ज्वार-भाटा, सूनामी कितने तूफान ले आते हैं,
तब कहाँ वो सागर शांत-गंभीर रह जाता है?
जो चाँद सूरज की बात करते हो,सूरज तपता रह जाता है,चाँद घटता-बढ़ता नज़र आता है,
दोनों भी स्थिर कहाँ रह पाते है?
जब ग्रहण दोनों को लग जाता है…
सपने रातों में आते है,नींद खुली टूट जाते है,
क्या दिल में दर्द, जिस्म में घाव देकर जाते है?

देखो सब ठीक हो जाएगा…कर लूँगीं मैं सब कुछ…जो तुम इन सवालों के…सही जवाब मुझको दे दो …

ना दे पाओ तो, इतना तो समझ लो, साधारण सा दिल और साधारण सी भावनाएँ लिए, मैं "पवन" हूँ… कुछ और ना बनने को कहो

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